Tribes of Madhya Pradesh

Tribes of Madhya Pradesh पर विशेष पोस्ट आपके किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में सहायक होगा, 2011 की जनगणना के अनुसार जनजातियों (Tribes of Madhya Pradesh) का प्रतिशत मध्यप्रदेश में 21.1% है। लगभग 24 जनजातियां यहां निवास करती हैं। जिनमे के कुछ जनजातियों का विवरण हम इस पोस्ट में दे रहे हैं.

मध्यप्रदेश में लगभग 1.53 करोड़ जनसंख्या जनजातियों की है, जो अब भी भारत में सर्वाधिक है । विभिन्न जनजातियों के कलाकार अपनी जनजाति से जुड़ी कला और संस्कृति को देश—विदेश में फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मध्यप्रदेश सरकार भी इनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए प्रयासरत है, इसी को ध्यान में रखते हुए PESA Act मध्यप्रदेश में लागु किया गया है.

Tribes of Madhya Pradesh

Tribes of Madhya Pradesh

Tribes of Madhya Pradesh प्रमुख बातें

  • म.प्र. जनजातियों की दृष्टि से देश में प्रथम स्थान पर है म.प्र. में सबसे अधिक जनजाति झाबुआ जिले में पाई जाती है और सबसे कम भिण्ड में।
  • म.प्र. में सबसे अधिक भील जनजाति इसके बाद गोंड जनजाति पाई जाती है।
  • म. प्र. में कुल जनजाति में भीलों की संख्या 37.7% है। तथा गोड़ों की 35.6% है।
    म.प्र. में लगभग 47 जनजातियाँ निवास करती हैं।
  • म.प्र. की जनजातियाँ प्रोटो ऑस्ट्रेलायड परिवार का प्रतिनिधित्व करती है।
  • देश का पहला आदिवासी संचार केन्द्र झाबुआ में स्थित है।
  • आदिवासियों पर शोध कार्य हेतु अमरकण्टक में इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय आदिवासी विश्वविद्यालय खोला गया है।

म.प्र. की तीन जनजातियाँ विशेष पिछड़ी मानी जाती है :-
(1) ग्वालियर संभाग की सहरिया जनजाति ।
(2) मण्डला जिले के बैगाचक क्षेत्र की बैगा जनजाति ।
(3) छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट की भारिया जनजाति ।

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गोंड़ जनजाति 

गोड़ शब्द की उत्पत्ति कोड़ शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है पर्वत । गोंड़ स्वयं को कोयतोर कहते हैं। जिसका अर्थ है पर्वतवासी मनुष्य । यह म. प्र. में नर्मदा सोन घाटी के दोनों ओर पाई जाती है। गोंड़ द्रविड़ियन मूल के है। सामान्यतः इनके मोटे होंठ, बड़ी एंव चपटी नाक, सीधे बाल वाले होते हैं । गोंड़ अत्यंत निर्गम क्षेत्र में निवास करते है । गोंड़ समाज पितृवंशीय एवं पितृसत्तात्मक हैं। परिवार का वृद्ध पुरूष मुखिया होता है। मोटे अनाज से बना पेय पदार्थ अत्यधिक प्रिय होता है। भोजन में सामान्यत मोटे अनाज एवं कन्दमूल शामिल होते हैं। गोंड़ो में अतिथि सत्कार का विशेष महत्व होता है। यह देश की सबसे बडी व म.प्र. की दूसरी सबसे बडी जनजाति है। यह मुख्य रूप से मण्डला, बालाघाट, डिंडोरी, शहडोल, उमरिया, अनूपपुर जिलों में पाई जाती हैं

  • अगरिया, परथान, नागरची, ओझा, गोंड़ जनजाति की उपजातियां हैं।
  • प्रमुख देवता ठाकुर देव, बूढ़ा देव, दूल्हा देव हैं।
  • गोंड़ जनजाति में वधू मूल्य का प्रचलन है। इनमें विधवा विवाह और बहुविवाह प्रथा प्रचलित है।
  • इनमें दूथ लौटावा विवाह प्रथा का प्रचलित हैं। कर्मा, सैला, सुआ, गिवानी, कहरवा, गेंड़ी, भड़ौनी आदि गोंड़ जनजाति में प्रमुख नृत्य हैं।
  • पठौनी, चढ़, लमसेना आदि गोंड़ो के प्रमुख विवाह हैं।
  • बिदरी, कर्मा, छेरता मड़ई, मेघनाद आदि इनके प्रमुख पर्व है।
  • गोंड़ जनजाति के लोग कृषि और शिकार से अपनी आजीविका चलाते हैं।

गोंड़ो की प्रमुख जनजातियाँ

अगरिया लोहा का काम करने वाला वर्ग
परधान – मंदिरो में पूजा पाठ तथा पुजारी का काम करने वाला ।
कोईला भुतिस- नाचने वाले गोंड़
ओझा – पण्डिताई एवं तांत्रिक
सोलाहास – बढ़ईगिरी का काम करने वाला ।

निवास स्थान के आधार पर गोंड़ो के दो वर्ग हैं-
राजगोंड़- ये लोग भू स्वामी होते है।
धुरगोंड़- ये गोंड़ो का साधारण वर्ग है।

भील जनजाति

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यह म.प्र के पश्चिमी भाग में पाई जाती हैं। यह थार, झाबुआ, रतलाम, खण्डवा, खरगौन जिलों में पाई जाती हैं। यह म. प्र. में सबसे बड़ी जनजाति है। इनके निवास स्थान को फाल्या कहते है।

भील शब्द उत्पत्ति ‘बील’ शब्द से हुई है। जिसका अर्थ होता है धनुष भील समाज पितृसत्तात्मक एवं पितृस्थानीय है। भील भूरे से गहरे रंग, मध्यम कद, सुगठित शरीर के होते हैं। बड़ी आँखे और चौड़े माथे और घुंघरालें बाल वाले होते हैं। भीलों के गाँव को पाल कहते हैं।
भीलों की प्रमुख उपजातियों में भिलाला, बरेला, पटालिया हैं।
भील जनजाति म.प्र. के साथ-साथ गुजरात, राजस्थान में भी पाई जाती हैं।
भील जनजाति में होली के अवसर पर भगोरिया नृत्य का आयोजन किया जाता हैं।
भील जनजाति की महिलायें अपने हाथ, पैर और चेहरे पर गुदना गुदवाती हैं।
भीलों के मकान को “कू” कहते हैं और ये लोग कृषि कार्य से जीवनयापन करते हैं।
तीर कमान इनका प्रमुख अस्त्र हैं।
ये अपने आप को राजपूतों का वंशज मानते हैं।
म. प्र. की तीन बड़ी जनजातियां भील, गोड़ और कोल है।
भील जनजाति में होली के अवसर पर गोल गथेडो विवाह उत्सव का आयोजन किया जाता है।
भीलो में दो तरह के विवाह परीक्षा विवाह या गोल गधेड़ो और अपहरण विवाह या भगोरिया प्रचलित हैं। विधवा विवाह और वधू मूल्य भी प्रचलित है।
भीलो का थर्म आत्मावादी हैं ।
इनके प्रमुख देवता राजा पंथा है।
इनके द्वारा की गई कृषि ‘चिमाता’ कहलाती हैं।

बैगा जनजाति

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बैगा द्रविड़ वर्ग की जनजाति है ।
बैगा जनजाति के लोगों का कद मध्यम ऊँचा, सुगठित शरीर, नाक चपटी, रंग काला, बाल सीधे होते है । ये लोग अन्य जनजातियों के गाँव में निवास करते है।
बैगा जनजाति के लोग बने जंगलों में दुर्गम क्षेत्रों निवास करते हैं।
बैगा समाज पितृसत्तात्मक समाज है। इनमें गोत्र प्रथा प्रचलित हैं। और सगोत्रीय विवाह नहीं होता है।
विधवा विवाह प्रचलित है, लेकिन विधवा को अपने देवर से विवाह करना होता है। कुल्हाड़ी इनका प्रमुख औजार है। इन्हें औषधियों का अच्छा ज्ञान होता हैं।
बैगा ही गोड़ के परम्परागत पुरोहित होते हैं।
म.प्र. के बालाघाट, मंडला और शहडोल जिलों में निवास करती हैं। उपजातियाँ भारिया, भरोतिया, नरोतिया, बिंझावर, रायमैना, कठमैना
बैगा जनजाति कृषि कार्य में हल का प्रयोग नहीं करती है। इनकी मान्यता के अनुसार धरती को माता मानते है। तथा हल से माँ का सीना फट जायेगा।
इस जनजाति में स्थानांतरित कृषि बेवार या पेडू नाम से जानी जाती है।
इसके प्रमुख देवता बूढ़ा देव और दूल्हा देव हैं, म.प्र. की बैगा जनजाति साल वृक्ष को पवित्र वृक्ष मानती है, क्योंकि इस पर उनके प्रमुख देव बूढ़ादेव निवास करते है। बूढ़ादेव को मुर्गा, नारियल और मदिरा चढ़ाई जाती है। बैगा जनजाति के ऊपर लिखी गई पुस्तक ‘द बैगा’ के लेखक बैरियर एल्विन है।
कर्मा इनका सर्वप्रथम नृत्य है। इसके अतिरिक्त विलमा नृत्य भी प्रचलित है ।

कोल जनजाति

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कोल मुण्डा समूह की एक अत्यंत प्राचीन जनजाति हैं।

जिसका मूल निवास स्थान मध्यप्रदेश के रीवा जिले का कुराली क्षेत्र है। कोल अपना सम्बन्ध शबरी से बताते है । कोल काले रंग के होते है इनका कद मध्यम, होठ मोटे, माथा उभरा एवं बाल काले होते हैं ।

यह म.प्र. के रीवा संभाग, जबलपुर, शहडोल में पाई जाती हैं। जनसंख्या की दृष्टि से कोल म.प्र. का तीसरा सबसे बड़ी जनजाति है। कोल लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि मजदूरी है।
इसकी पंचायत को गोहिया कहते हैं कोल दहका इनका प्रसिद्ध आदिम नृत्य है।
कोल जनजाति के दो उपवर्ग

रौतिया एवं रौतेले हैं। इनमे टोटम का प्रचलन नहीं है।

कोरकू जनजाति

कोरकू मुण्डा अथवा कोल जनजाति की एक शाखा है। कोरकू का शाब्दिक अर्थ है मनुष्यों का समूह। कोरकू का रंग काला, कद मध्यम, नाक चौड़ी और चपटापन लिए हुये, होंठ मोटे, शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं बाल काले होते हैं इनके घर आमने-सामने पंक्तिबद्ध होते है एवं एक दूसरे के काफी निकट होते है ।
कोरकू स्वंय को हिन्दू मानते है । ये लोग महादेव एवं चन्द्रमा की पूजा करते हैं, मृतक सिडोली प्रथा प्रचलित है। मृतकों को दफनाया जाता है। मृतक की स्मृति में लकड़ी का स्तम्भ गाढ़ते हैं।
यह म.प्र. के दक्षिणी भाग में बैतूल, छिंदवाडा होशगांबाद जिलों में मुख्य रूप से पाई जाती हैं। ये स्वयं को कौरवों का वंशज मानते हैं।
इसकी दो प्रमुख उपजातियाँ हैं –  राजकोरकू और पाथरिया कोरकू
पड़ियार और भूमका कोरकुओं के अति सम्मानित व्यक्ति होते है, लमझना प्रथा या घर दमाद प्रथा, चिथौड़ा, राजी-बाजी प्रथा, हठविवाह प्रथा कोरकू की प्रचलित विवाह प्रथा हैं।

बंजारा जनजाति

यह एक घुमन्तू जनजाति है। यह विश्व में प्रथम कंघी के आविष्कारक है। बंजारा पुरुष साहसी और निर्भय होते है।

पारधी जनजाति

पारथी मराठी भाषा के शब्द ‘पारथ’ का एक तत्सम रूप है, जिसका अर्थ होता है आखेट | यह मुख्य रूप से रायसेन और तीहार जिलों में पाई जाती हैं। पारथी वन्य पशुओ का शिकार करने और उन्हे पकड़ने में बहुत सिद्धहस्त हैं ।
पारधी जनजाति के कई उपविभाग है। जैसे-गोसाई पारधी, चीता पारधी भील पारधी, शीशी का तेल पारधी, फाँस पारधी तथा बहेलियो को भी इसमे शामिल कर लिया जाता है।
पारधी ‘मगर’ का शिकार कर उसकी चर्बी का तेल प्रयुक्त करते है ।
पारधी समाज में महिलाओं को शिकार करने की अनुमति नही है।

खैरवार जनजाति

यह खैर वृक्ष से कत्था बनाने वाली जनजाति है।

सहरिया जनजाति

सहरिया कोलरियन परिवार की एक अत्यंत पिछड़ी जनजाति है। यह म.प्र. के ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, श्योपुर और मुरैना जिलों में
पाई जाती हैं। सहरिया अपने आप को भीलों का छोटा भाई कहलाने में गौरव का अनुभव करते है।
सहरिया अपनी अलग कतारबद्ध मकानों की श्रृंखला बनाकर समूहों में रहते है । जिन्हे सहराना कहते है
सहर का आशय जंगल होता है। इनमें विवाह संबंधी नियम कठोर नहीं है। तलाक, विधवा विवाह, को मान्यता प्राप्त है।
इस जनजाति के लोग कृषि कार्य के अलावा जड़ी बूटियों को एकत्रित करने का कार्य करते हैं ।
इसका मुख्य हथियार कुल्हाडी है।
ये हिन्दू देवी देवताओं को मानते हैं।

पनिका जनजाति

यह जनजाति सीधी और शहडोल जिलों में पाई जाती है। ये कपड़े बनाने का कार्य करते हैं।
ये कबीरपंथी हैं।

अगरिया जनजाति

अंगरिया गोड़ो की उपजाति है। यह मण्डला और शहडोल जिलों में मुख्य रूप से पाई जाती है।
इनका मुख्य व्यवसाय लौह अयस्क से लोहा धातु अलग करना और औजारों को बनाना है। इनके प्रमुख देवता लोहासूर हैं। इनका निवास
भट्टी में माना जाता है। ये अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए काली मुर्गी की भेंट चढ़ाते हैं।
विवाह मे वधू मूल्य चुकाने की परंपरा है।

भारिया जनजाति

भारिया का शाब्दिक अर्थ है भार ढोने वाला। भारिया गोंड़ जनजाति की एक शाखा है। जो द्रवीडियन परिवार की जनजाति मे शामिल है।
यह छिंदवाडा और उसके आसपास के क्षेत्रों में पाई जाती हैं। छिंदवाडा जिले के पातालकोट क्षेत्र में यह प्रमुख रूप से पिछड़े हुए हैं।
भारियाओं का कद मध्यम, रंग काला, आँख छोटी, नाक चौड़ी, होठ पतले एवं दाँत बारीक होते हैं । इनके गाँव को ढ़ाना कहते है। जिसमे दो से लेकर पच्चीस घर होते हैं। भारियों के घर घास फूस, लकड़ी एवं बाँस के बने होते हैं। भारिया पुरुष थोती, कुर्ता, बंड़ी पहनते है एवं सिर पर पगड़ी बाँधते है।
भड़म, सैतम, करमा सैला आदि इनके प्रमुख नृत्य है। इनका मुख्य भोजन पेज है जो की बासी चावल से बनता है ।
भारिया समाज पितृसत्तात्मक एवं रूढ़िवादी समाज है। इनके समाज में भूमका, पडियार एवं कोटवार का महत्वपूर्ण स्थान है। सगोत्र विवाह वर्जित है।
ममेरे फुफेरे भाई बहनों के विवाह को शुभ माना जाता है।
इनके प्रमुख देवता बूड़ा देव नाग देव आदि है।
ये लोग हिन्दू देवी देवताओं की भी पूजा करते हैं।
नवाखानी, जवारा, दिवाली, होली, इनके प्रमुख पर्व एवं त्योहार हैं।

FAQS

Question : जनजातियों की दृष्टि से देश में प्रथम स्थान किस राज्य का है
Ans: मध्यप्रदेश

Question : म.प्र. में सबसे अधिक जनजाति किस जिले में पायी जाती है
Ans : झाबुआ जिले में पाई जाती है

Question : म.प्र. में कितने जनजातियाँ निवास करती हैं।
Ans : लगभग 47

Question : देश का पहला आदिवासी संचार केन्द्र कहाँ पर स्थित है।
Ans : झाबुआ में

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