बिरसा मुण्डा का आंदोलन एवं ईतिहास

आइये दोस्तों हम आदिवासी क्रन्तिकारी युवा बिरसा मुण्डा का आंदोलन एवं ईतिहास के बारें में जानेगे, प्रतियोगी परीक्षा के लिए उपयोगी लेख है खासकर UPSC के लिए

बिरसा मुंडा का आंदोलन एवं इतिहास

बिरसा मुंडा का जन्म व आरंभिक जीवन

15 नवम्बर 1875 को बिहार के उलीहातू गांव-जिला रांची में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था ।
उन्होंने ईसाई मिशनरी स्कूल से शिक्षा प्राप्त की, उनके पिता का नाम सुगना मुण्डा और माता का नाम करमी था। वे साधारण किसान थे। उन दोनों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था । बिरसा मुण्डा की भी ईसाई धर्म में दीक्षा हुई। उनका नाम दाऊद रखा गया था । बुर्जू मिशन से उनकी पढ़ाई शुरू हुई। उनको बांसुरी बजाने बड़ा शौक था। पढ़ाई के सिलसिले में वे 1890 ई. तक चाईबासा मिशन में रहे । वहाँ उनको फादर नोञोत का व्यवहार अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने ईसाई धर्म छोड़ दिया। पढ़ाई भी छूट गयी।

विद्रोहों का इतिहास है

धीरे-धीरे उनको अपने समाज का दुःख-दर्द समझ में आने लगा । 1895 में उनको मुक्ति का एक मार्ग दिखाई पड़ा। उन्होंने अपने गाँव-समाज की सेवा शुरू की। लोग उनको धरती आबा बिरसा भगवान क्रांतिदूत आदि कहने लगे। चलकद में भीड़ उमड़ने लगी । झारखण्ड का आधुनिक इतिहास विद्रोहों का इतिहास है । बंगाल का मिदनापुर जिला 1760 ई. में ही अंग्रेजों के अधीन आ चुका था। मुगलों से बिहार-बंगाल की दीवानी मिलने के बाद 1767 ई. में अंग्रेजों ने मिदनापुर की ओर से धालभूमगढ़ (घाटशिला) पर आक्रमण किया। तीन-चार वर्षों के अन्दर पलामू किला पर भी उनका कब्जा हो गया। धीरे-धीरे झारखण्ड के राजा-महाराजा और जागीरदार उनकी अधीनता स्वीकार करने को विवश हुए। नया सनद देकर उनसे मालगुजारी वसूल की जाने लगी । यहाँ के लोग प्रतिरोध करते रहे। लेकिन अंग्रेजों का शिकंजा कसता गया।

जमींदारी व्यवस्था

1793 ई. में अंग्रेजों ने स्थायी बन्दोबस्ती (जमींदारी व्यवस्था) शुरू की। जंगलों पर भी जमींदारों का अधिकार हो गया। स्थायी बन्दोबस्ती के प्रावधानों के तहत मालगुजारी नहीं देने वालों की जमीन-जायदाद नीलाम की जाने लगी। झारखण्ड में जमीन-जगह पर कोई कर नहीं लगता था । जरूरत पड़ने पर चन्दा – बेहरी से काम चलता था । जंगल-जमीन पर आबाद करने वालों का पूरा अधिकार माना जाता था। इसे ही इस क्षेत्र में खँटकट्टी, भुंइहरी और कोड़कर हक कहा जाता था। नये कानून के तहत मालगुजारी नहीं दे पाने के कारण जमीनें नीलाम की जाने लगीं। विलियम हंटर के अनुसार इस कानून के कारण तत्कालीन बंगाल की आधी से अधिक जमीन सूदखोर महाजनों के हाथ चली गयी । यहाँ के लोग अपने खानदानी हकों से बेदखल होने लगे। इसी के प्रतिकार में यहाँ बगावतों का सिलसिला शुरू हुआ। यह सिलसिला यहाँ आज भी जारी है।

“अबुआ दिसुम, अबुआ राज”

बिरसा मुण्डा के पहले बुण्डू – तमाड़ क्षेत्र में 1793 से 1820 तक रूदू मुण्डा, कोन्ता मुण्डा, बिसुन मानकी ने इस आंदोलन की अगुवाई की। 1831-32 में सिंगराय – बिंदराय मानकी ने बंदगाँव से कोल- विद्रोह का मशाल जलाया। 1855-56 में संथाल परगना में सीधू-कान्हू ने संथाल हूल का सूत्रपात किया। 1857 में विश्वनाथ शाहदेव, गणपत राय, शेख भिखारी, नीलाम्बर-पीताम्बर ने अंग्रेजों के पसीने छुड़ाये। इस लड़ाई का अगला चरण 1960 में शुरू हुआ जो सरदारी लड़ाई के नाम से विख्यात है। इस लड़ाई का चरम विस्फोट बिरसा आंदोलन में हुआ । बिरसा ने अपने पुरखों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने लोगों को संगठित किया। उनका मुख्य नारा था ‘अबुआ दिसुम, अबुआ राज’ यानी हमारे इलाके में हमारा राज रहेगा। उन्होंने अंग्रेजों और उनके सहायकों को यहाँ से भगाने का संकल्प लिया। उनका आहवान था – हेंदे रम्बरा केचे केचे, पुंडी रम्बरा केचे केचे यानी काले और गोरे सभी साहबों को मार भगाओ। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बिरसा ने अपने लोगों की कमजोरियों और बुराइयों को दूर करना जरूरी समझा। इसके लिए उन्होंने बिरसा धर्म चलाया।

बिरसा की गिरफ्तारी

आन्दोलन के दिनों में उन्होंने इस काम की जिम्मेवारी सीमा मुण्डा को दी थी। राजनीतिक आंदोलन का जिम्मा डॉका मुंडा को दिया गया था। भरमी मुंडा, गया मुंडा उनके अभिन्न साथी थे। गाँव-गाँव में प्रचारक भेजे जाते थे। उन्होंने स्वयं चुटिया नागफेनी, नवरतनगढ़, पालकोट की यात्रा की और लोगों को जागृत किया। बिरसा आन्दोलन के दो चरण थे। पहले चरण की शुरुआत 1895 में हुई थी। इसमें सरदार आन्दोलन के अग्रणी गिदयुन एलियाजर और प्रभुदयाल उनके सहयोगी थे। 24-27 अगस्त की रात को उनलोगों ने कई जगहों पर आक्रमण की तैयारी की थी। पर सरकार को इसकी भनक मिल गयी। पुलिस अधीक्षक मीयर्स से ने चलकद में बिरसा को गिरफ्तार कर जेल भिजवा दिया। नवम्बर 1985 में उनको दो वर्ष कैद और 50 रु. जुर्माना की सजा हुई 30 नवम्बर 1897 को बिरसा हजारीबाग जेल में मुक्त हुए। उनको कड़ी ताकीद के साथ चलकद भेजा गया। इधर युद्ध की तैयारी चल रही थी। 24 दिसम्बर 1999 को आन्दोलन का दूसरा चरण शुरू हुआ। चक्रधरपुर, खूँटी, कर्रा, तोरपा तमाड़, बसिया आदि में बिरसा के सशस्त्र अनुयायी अपनी मुक्ति के लिए निकल पड़े। इसका अन्तिम मोर्चा शैल रकाब डोमबारी बुरू में केन्द्रित था ।

राँची के डिप्टी कमिश्नर एच.सी. स्ट्रोटफील्ड ने यहाँ मोर्चा संभाला। दूर-दूर से सेना मंगायी गयी अनेक लोग हताहत हुए। आंदोलन बिखरने लगा। संतरा के जंगलों में बिरसा धोखे से पकड़े गये उन पर और उनके साथियों पर मुकदमें चले इसी मुकदमे के दौरान 9 जून 1900 ई. को सुबह 9 बजे राँची जेल में उनका देहावसान हुआ। बिरसा एक गरीब किसान का बेटा था। उनकी पढ़ाई-लिखाई अधिक नहीं थी। फिर भी 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी। उनका नारा, ‘अबुआ दिसुम अबुआ राज’ आज भी जिन्दा है, प्रासंगिक है। इस क्रांतिदूत की शहादत आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक है। हम उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

इस लेख को विसेश्वर प्रसाद केसरी जी लिखा है जो की अपना झारखण्ड नमक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था

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